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उत्तराखंड राज्य के 22 सालों की सियासत में मुख्यमंत्री कुर्सी की खींचतान से हमेशा जनादेश की उपेक्षा हुई और दिल्ली जीती

उत्तराखंड राज्य के 22 सालों की सियासत में मुख्यमंत्री कुर्सी की खींचतान से हमेशा जनादेश की उपेक्षा हुई और दिल्ली जीती। पांचवीं विधानसभा में स्पष्ट जनादेश के बावजूद एक बार फिर दिल्ली के गलियारों से मुख्यमंत्री घोषित हुआ। राजनीतिक विश्लेषक छोटे राज्यों में राष्ट्रीय दलों के केंद्रीय नेतृत्व के बढ़ते दखल को घातक मानकर इसे विकास में बाधक बताते हैं। वहीं कमजोर नेतृत्व भी करार देते हैं।असल में केंद्रीय नेतृत्व के दखल की पटकथा उत्तराखंड बनने के दो साल बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव से ही शुरु हो गई थी। वर्ष 2002 वर्ष में चुनाव में कांग्रेस पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला। उसके खाते में 36 सीटें आई। लेकिन विधायकाें में आपसी गुटबाजी से विधायक दल को नेता नहीं बन पाया। जिसके बाद लुटियंस दिल्ली ने हस्तक्षेप किया और यूपी के तीन बार के सीएम नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बना दिया। मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने रामनगर से उपचुनाव लड़ा और जीत हासिल की।

ऐसा ही कुछ देखने को मिला वर्ष 2007 में हुए दूसरे विधानसभा चुनाव में। इस बार जनता ने भाजपा को बहुमत के करीब पहुंचाया। उन्हें 35 सीटें दी। मुख्यमंत्री के चयन प्रक्रिया होते ही भाजपा विधायक आपस में बंट गए। तब भाजपा हाइकमान ने पौड़ी सांसद भुवन चंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बना दिया। बाद में खंडूड़ी धूमाकोट से चुनाव लड़े और जीत हासिल की।राजनीतिक विश्लेषक डॉ रमेश बिष्ट ने बताया कि राष्ट्रीय दलों ने जनादेश को दरकिनार ही किया है। पांच वर्षों तक यह दल केंद्रीय नेतृत्व के अनुसार ही कार्य करते हैं। ऐसे में कई बार क्षेत्रीय हितों को नुकसान होता है। विकास का पहिया भी थम सा जाता है, जो दिख रहा है।

वर्ष 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में अस्पष्ट जनादेश मिला। 70 सीट वाली विधानसभा में 32 सीटें कांग्रेस व 31 सीटें भाजपा के पाले में गई। जिसके बाद सियासी संग्राम शुरू हो गया। अधिक संख्या बल होने के कारण राज्यपाल ने कांग्रेस को सरकार बनाने का आमंत्रण दिया। लेकिन फिर वही हुआ सीएम की कुर्सी को लेकर विधायकों में खींचतान। फिर निर्णय लुटियंस दिल्ली ने लेना पड़ा। टिहरी सांसद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना दिया गया। उन्होंने सितारगंज विधानसभा से उपचुनाव लड़ा और जीत हासिल की। लेकिन सत्ता सुख ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया। दो साल में ही दिल्ली केंद्रीय नेतृत्व ने विजय बहुगुणा को हटाकर हरिद्वार सांसद हरीश रावत को मुख्यमंत्री बना दिया। हरीश रावत ने धारचूला विधानसभा से उप चुनाव लड़ा और जीत हासिल की।

चौथे विधानसभा चुनाव में करीब 17 साल बाद सीधे तौर पर केंद्रीय नेतृत्व का दखल खत्म हुआ। जनता ने 57 सीट देकर भाजपा को प्रचंड बहुमत दिया। थोड़ी खींचतान के बाद विधायकों ने डोईवाला से विधायक त्रिवेंद्र सिंह रावत को विधायक दल का नेता चुना। चार साल तक वह प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। चार साल बाद फिर हाईकमान ने हस्तक्षेप करने की परंपरा को बखूबी निभाया। पौड़ी सांसद तीरथ सिंह रावत को सीएम बना दिया। लेकिन चार माह भी उनका कार्यकाल नहीं रहा। चुनाव से ठीक पहले खटीमा के विधायक पुष्कर सिंह धामी को सीएम बना दिया गया। जिनके नेतृत्व में 2022 का चुनाव लड़ा गया।

बीजेपी ने युवा सीएम पुष्कर सिंह धामी के चेहरे पर भाजपा ने चुनाव लड़ा। दाव सफल रहा। बीजेपी को 47 सीटें मिली। लेकिन चुनाव में दिलचस्प घटना जिसके नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया वही हार गया। जिसके बाद एक बार फिर मुख्यमंत्री कुर्सी के लिए दिल्ली को हस्तक्षेप करना पड़ा। हाईकमान ने पुष्कर सिंह धामी को दोबारा मुख्यमंत्री घोषित कर दिया। धामी ने एक बार फिर चम्पाव से ताल ठोंक दी है। आज प्रचार खत्म हो जाएगा और 31 को जनता जर्नादन भाग्य का फैसला ईवीएम में बंद कर देगी।

 

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