ग़ज़ा पट्टी में हर रात एक बुरे सपने की तरह बीत रही है — एक ऐसा दुःस्वप्न, जिसकी सुबह में भी अंधकार ही होता है। दिसंबर 2023 की उस सर्द रात को मोहम्मद अल-नज्जर अपने छह बच्चों और पत्नी के साथ जान बचाकर भागे थे। लेकिन जब धूल बैठी, घर तबाह हो चुका था, और उनका सबसे बड़ा बेटा अहमद कहीं नहीं था।
“ऐसा लग रहा है जैसे ज़मीन ने उसे निगल लिया,” — मुवासी के एक तंबू शिविर में बैठे 46 वर्षीय अल-नज्जर की आँखों में अब भी बेटे की तलाश झलकती है। यह उनका नौवां विस्थापन शिविर है।
दो साल हो चुके हैं, लेकिन अहमद का कोई सुराग नहीं मिला है। न अस्पतालों में, न मुर्दाघरों में, न रेड क्रॉस की सूचियों में। परिवार अब बस इतना जानना चाहता है — क्या वह ज़िंदा है, क्या वह इज़राइली कैद में है, या… क्या वह अब इस दुनिया में नहीं रहा।
ग़ज़ा में हजारों परिवार ऐसे ही सवालों के साथ जी रहे हैं। वे अपनों की तलाश में खुद मलबा खंगाल रहे हैं — न बुलडोज़र बचे हैं, न बचाव दल। कुछ लापता लोग इज़राइली सैन्य कार्रवाई के दौरान बिना किसी सूचना के हिरासत में लिए गए, तो कुछ शायद मलबे के नीचे दबे हुए हैं।
ग़ज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय का अनुमान है कि कम से कम 6,000 लोग मलबे में दबे हो सकते हैं, और 3,600 से अधिक लोग लापता हैं, जिनकी कोई पुष्टि नहीं हो सकी है। मंत्रालय ने अभी तक केवल 200 मामलों की जांच की है, जिनमें से 7 लोग इज़राइली हिरासत में पाए गए।
कैथरीन बॉम्बरगर, अंतरराष्ट्रीय लापता व्यक्ति आयोग की प्रमुख, कहती हैं, “हम नहीं जानते कि लापता लोगों की सही संख्या कितनी है — यह युद्ध का सबसे अदृश्य घाव है।”
खालिद नासर की 28 वर्षीय बेटी दलिया और 24 वर्षीय बेटा महमूद अलग-अलग हवाई हमलों में मारे गए। जबालिया शिविर में उनका घर पूरी तरह ध्वस्त हो गया, लेकिन शव कभी नहीं मिले।
नासर कहते हैं, “दलिया शायद रॉकेट के साथ ही गायब हो गई।” महमूद की तलाश में उन्होंने महीनों खुदाई की — फावड़ा, हथौड़ा और अपनी पत्नी की मदद से — लेकिन कुछ नहीं मिला।
जब जनवरी में युद्धविराम हुआ, तो उन्होंने खुद ही मलबा हटाना शुरू किया। मार्च में फिर से बम गिरने लगे और उन्हें भागना पड़ा। 60 वर्षीय खदरा, महमूद की मां, कहती हैं, “अगर अगला युद्धविराम आता है, तो मैं फिर खुदाई शुरू करूंगी, चाहे उसकी एक उंगली की अंगूठी ही क्यों न मिले।”
स युद्ध में सिर्फ़ घर नहीं उजड़े हैं, बल्कि हज़ारों पहचानें, कब्रें, और परिवारों की उम्मीदें भी मलबे में दफ्न हो चुकी हैं। रेड क्रॉस के अनुसार, कम से कम 7,000 मामले अभी भी अनसुलझे हैं — और यह आंकड़ा उन लोगों को शामिल नहीं करता, जो मलबे में दबे होने की आशंका में गिने भी नहीं गए।
इज़राइली सेना लापता या हिरासत में लिए गए फिलिस्तीनियों के बारे में कोई जानकारी साझा नहीं करती। परिवारों को बस इंतज़ार है — कभी एक खबर की, कभी एक कंकाल की, या किसी अंगूठी की, जो यह साबित कर सके कि जिसे वे ढूंढ रहे हैं, वो कभी था।
ग़ज़ा आज सिर्फ़ एक युद्ध क्षेत्र नहीं है, यह लापता बेटों, बिखरे सपनों और मलबे में दफ्न हक़ीक़तों का कब्रिस्तान बन चुका है। हर तंबू, हर ढह चुका घर, और हर मां की आंखें पूछ रही हैं — क्या किसी ने हमारे बच्चों को देखा है?